पाठ: 13 पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि हिन्दी अनुवाद Class 6

🪔 पाठ 13 — पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि

श्लोक 1

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रयोज्यते।।

शब्दार्थ:

  • पृथिव्याम् — पृथ्वी पर
  • त्रीणि — तीन
  • रत्नानि — रत्न (कीमती वस्तुएँ)
  • जलम् — पानी
  • अन्नम् — भोजन
  • सुभाषितम् — अच्छे वचन / मधुर बातें
  • मूढैः — मूर्खों द्वारा
  • पाषाणखण्डेषु — पत्थरों के टुकड़ों में
  • रत्नसंज्ञा — ‘रत्न’ का नाम
  • प्रयोज्यते — दी जाती है

हिन्दी अनुवाद:
पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं — जल, अन्न और सुभाषित (अच्छे वचन)।
मूर्ख लोग पत्थरों के टुकड़ों (हीरे-मोती) को रत्न कहते हैं।

भावार्थ:
इस श्लोक में यह सिखाया गया है कि असली रत्न वे नहीं जो चमकते हैं, बल्कि वे हैं जो जीवन में उपयोगी हैं।
जल जीवन देता है, अन्न पोषण करता है और सुभाषित (अच्छे विचार) व्यक्ति का चरित्र बनाते हैं।


श्लोक 2

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

शब्दार्थ:

  • अयम् — यह
  • निजः — अपना
  • परः — पराया
  • वेति — ऐसा मानना
  • गणना — सोच
  • लघुचेतसाम् — छोटे मन वालों की
  • उदारचरितानाम् — उदार स्वभाव वाले लोगों की
  • तु — लेकिन
  • वसुधा — पृथ्वी
  • एव — ही
  • कुटुम्बकम् — परिवार है

हिन्दी अनुवाद:
“यह मेरा है, यह पराया है” — ऐसी सोच छोटे मन वालों की होती है।
उदार विचार वाले लोगों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही परिवार होती है।

भावार्थ:
यह श्लोक हमें “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना सिखाता है —
सच्चे उदार व्यक्ति के लिए कोई पराया नहीं होता, सब एक परिवार के समान हैं।


श्लोक 3

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

शब्दार्थ:

  • उद्यमेन — प्रयास से
  • हि — ही
  • सिध्यन्ति — सिद्ध होते हैं
  • कार्याणि — कार्य
  • न — नहीं
  • मनोरथैः — केवल इच्छाओं से
  • न हि — कभी नहीं
  • सुप्तस्य — सोए हुए
  • सिंहस्य — सिंह के
  • प्रविशन्ति — प्रवेश करते
  • मुखे — मुख में
  • मृगाः — हिरण

हिन्दी अनुवाद:
कार्य केवल प्रयास से ही सफल होते हैं, केवल इच्छाएँ करने से नहीं।
क्योंकि सोए हुए सिंह के मुख में हिरण स्वयं नहीं आते।

भावार्थ:
परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।
सिर्फ सपने देखने या इच्छा करने से कुछ नहीं होता — कर्म आवश्यक है।


श्लोक 4

अभिवादनेन च नित्यं वृद्धोपसेवया।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

शब्दार्थ:

  • अभिवादनेन — प्रणाम करने से
  • नित्यं — प्रतिदिन
  • वृद्धोपसेवया — बड़ों की सेवा से
  • चत्वारि — चार
  • तस्य — उसके
  • वर्धन्ते — बढ़ते हैं
  • आयुः — आयु
  • विद्या — ज्ञान
  • यशः — यश (कीर्ति)
  • बलम् — बल (शक्ति)

हिन्दी अनुवाद:
जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रणाम करता है और बड़ों की सेवा करता है,
उसकी आयु, विद्या, यश और बल — ये चार बातें बढ़ती हैं।

भावार्थ:
यह श्लोक हमें संस्कार और विनम्रता सिखाता है।
बड़ों का आदर करने वाला व्यक्ति जीवन में दीर्घायु, विद्वान, यशस्वी और बलवान बनता है।


श्लोक 5

उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायः कृत्।।

शब्दार्थ:

  • उद्यमः — प्रयास
  • साहसम् — साहस
  • धैर्यम् — धैर्य
  • बुद्धिः — बुद्धि
  • शक्तिः — शक्ति
  • पराक्रमः — वीरता
  • षट् — छह
  • एते — ये
  • यत्र — जहाँ
  • वर्तन्ते — पाए जाते हैं
  • तत्र — वहाँ
  • देवः — भगवान
  • सहायः — सहायक
  • कृत् — होता है

हिन्दी अनुवाद:
जहाँ प्रयास, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम ये छह गुण होते हैं,
वहाँ स्वयं भगवान भी सहायता करते हैं।

भावार्थ:
ईश्वर उसी की मदद करता है जो कर्मशील, साहसी और धैर्यवान होता है।
जो निष्क्रिय है, उसे भगवान भी नहीं बचा सकते।


श्लोक 6

विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम्।।

शब्दार्थ:

  • विद्या — ज्ञान
  • ददाति — देती है
  • विनयम् — विनम्रता
  • विनयात् — विनय से
  • याति — पहुँचता है
  • पात्रताम् — योग्य होने की अवस्था
  • पात्रत्वात् — पात्रता से
  • धनम् — धन
  • आप्नोति — प्राप्त करता है
  • धनात् — धन से
  • धर्मम् — धर्म
  • ततः — उससे
  • सुखम् — सुख

हिन्दी अनुवाद:
विद्या से विनम्रता आती है, विनम्रता से पात्रता प्राप्त होती है,
पात्रता से धन मिलता है, धन से धर्म होता है और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।

भावार्थ:
यह श्लोक ज्ञान की महिमा बताता है।
ज्ञान से जीवन में सफलता, धन, धर्म और अंततः सुख प्राप्त होता है।


श्लोक 7

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

शब्दार्थ:

  • अपि — चाहे
  • स्वर्णमयी — सोने की बनी
  • लङ्का — लंका
  • न — नहीं
  • मे — मुझे
  • लक्ष्मण — हे लक्ष्मण
  • रोचते — भाती
  • जननी — माता
  • जन्मभूमिः — जन्मभूमि
  • च — और
  • स्वर्गात् अपि — स्वर्ग से भी
  • गरीयसी — महान

हिन्दी अनुवाद:
हे लक्ष्मण! चाहे लंका सोने की ही क्यों न हो, मुझे वह अच्छी नहीं लगती।
क्योंकि माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।

भावार्थ:
यह भगवान राम के वचन हैं — जो मातृभूमि प्रेम की भावना सिखाते हैं।
देशभक्ति और मातृभूमि के प्रति समर्पण सर्वोच्च है।


श्लोक 8

पुस्तकस्थाऽतु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।

शब्दार्थ:

  • पुस्तकस्थाः — पुस्तक में रखी हुई
  • या — जो
  • विद्या — शिक्षा
  • परहस्तगतं — दूसरों के हाथ में रखा हुआ
  • धनम् — धन
  • कार्यकाले — कार्य के समय
  • समुत्पन्ने — उपस्थित होने पर
  • न — नहीं
  • सा — वह
  • विद्या — विद्या
  • न — नहीं
  • तत् — वह
  • धनम् — धन

हिन्दी अनुवाद:
जो विद्या केवल पुस्तकों में बंद है और जो धन दूसरों के हाथों में है,
कार्य के समय न तो वह विद्या काम आती है, न वह धन।

भावार्थ:
ज्ञान तभी उपयोगी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।
इसी प्रकार धन तभी सार्थक है जब जरूरत के समय अपने नियंत्रण में हो।

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